हाइवे पर रात बारह बजे का आतुर सन्नाटा जिसकी खामोशियों में छिपी होती है रफ्तार की पुकार जो खींच लेती है हर मुसाफिर को अपनी ही मस्ती में और उसी मस्ती में आज डूबे बेपरवाह अपनी विदेशी कार में मंजिल की ओर आ रहे थे पराग वर्मा, पत्नी शताक्षी और आठ साल की बेटी साशा के साथ। गाड़ी में बजते तेज म्यूजिक और वीकेंड मनाकर लौटने की खुशी जैसे अंदर बैठे लोगों से छलक-छलक के गाड़ी के पहियों पर भी बरस जा रही थी और पहिये चलते-चलते कब उड़ने को हो आते, किसी को पता नहीं चलता। तभी अचानक सामने से आ रहे ट्रक की तेज हॉर्न और तीखी हेडलाइट ने पराग और उनके परिवार की किलकारियों को बुरी तरह चौंका दिया। अचानक खुमार से बाहर आये पराग के लिए ब्रेक, स्टेयरिंग, गीयर कुछ पलों के लिए मानों पहेली बन गये और एक जोरदार धमाके ने मल्टीनेशनल कंपनी में ऊँचे पद पर कार्यरत पराग की जिंदगी को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया।
घटना के छः महीने बीत चुके थे। पराग और शताक्षी, अपने घर की लॉबी में उदासियों की गोद में बैठे थे और उनके सीने को छेद रही थी सामने दीवार पर टँगी साशा की तस्वीर जिसे फूलमाला ने जंजीर की तरह जकड़ रखा था। उस दुर्घटना में पराग, शताक्षी तो किसी तरह बच गये लेकिन साशा को नहीं बचाया जा सका था। पराग की उदासी में जहर घोलने वाली एक और घटना जो शुरू हो चुकी थी, वो थी शताक्षी का अनसुलझा बर्ताव। कभी वह रात को उठकर ऐसे बात करने लगती जैसे उसके सामने साशा हो तो कभी साशा के लिए नये कपड़े खरीद के ले आती। पराग उसे समझा के हार चुका था लेकिन कोई फायदा नहीं था। इसलिए अब वह निर्णय ले चुका था कि वो शताक्षी को अकेला नहीं छोड़ेगा। अपनी बड़ी बहन मायरा से उसने बात कर ली थी और वह उसके घर आ रही थी जोशना के साथ।